Bhargav Tantram Hindi Book Pdf Download
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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:
वैदिक कर्मकाण्डों को सरल, सुगम बनाने के लिये वैष्णव, शैवशाक्तों ने संहिताओं का निर्माण किया। वैष्णव संहिता में सर्वप्रथम नारद संहिता है। उसके बार पाँचरात्र ग्रन्थों की रचनाएँ हुई। उनमें नारद संहिता के अतिरिक्त गौतम संहिता, भार्गव संहिता, सनत्कुमार संहिता आदि है।
भार्गव संहिता को ही भार्गव तन्त्र कहते हैं। भार्गव नाम से लगता है कि इनकी रचना भृगु ने की है; परन्तु ऐसी बात नहीं है। जैसे पांडु से पांडव, कुरु से कौरव हुए वैसे ही भृगु के वंशज को भार्गव कहते हैं। भृगु के पुत्र च्यवन, च्यवन के ऋचिक, ऋचिक के जमदग्नि और जमदग्नि के पुत्र परशुराम हुए। परशुराम को भार्गव कहा गया है। परशुराम श्री विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक हैं।
प्रश्न उठता है कि श्री परशुराम ने इस तन्त्र को किससे कहा? आधुनिक युग में लेखक पाठकों के लिये ग्रन्थ लिखते है; परन्तु वैदिक पौराणिक परम्परा में कोई प्रश्न करता है, तब कोई ईश्वरीय शक्ति या ऋषि उसका उत्तर देता है। आगम ग्रन्थों में पार्वती प्रश्न करती हैं और शिवशंकर उत्तर देते हैं। पुराणों में अधिकतर शौनक आदि प्रश्नकर्ता है और सूतजी वक्ता है। वैसे ही इस ग्रन्थ में अगस्त्य ऋषि प्रश्नकर्ता हैं और परशुराम जी वक्ता है।
महर्षि अगस्त्य वेदों में एक मन्त्र दृष्टा ऋषि हैं। उनकी पत्नी का नाम लोपामुद्रा है। बहुत विनती, स्तुति करने पर मित्र वरुण देवता ने अपना तेज एक घड़े में स्थापित किया। जिससे अगत्स्त्य जी की उत्पत्ति हुई। इनका नाम कुम्भज और घटोद्भव भी है। अगस्त्य अपनी पत्नी लोपामुद्रा के साथ भगवान शंकर के बड़े भक्त थे। काशी में रहकर वे सदैव प्रेम से श्री विश्वनाथ की उपासना करते थे। एक बार विन्ध्य पर्वत को ईर्ष्या हुई कि सभी देवता सूर्य, चन्द्र आदि सुमेरु गिरि की प्रदक्षिणा करते हैं। वे मेरी प्रदक्षिणा नहीं करते हैं। इसलिये उनका मार्ग अवरुद्ध कर दूँगा। ऐसा निश्चय करके विन्ध्याचल बढ़ने लगा। सूर्य, चन्द्र का मार्ग अवरुद्ध हो गया। सभी देवों के साथ सूर्य, चन्द्र ने सोचा कि यह अवरोध कैसे हटेगा और कैसे संसार में प्रकाश फैलेगा? सभी ऋषि, देवता महर्षि अगस्त्य की शरण में गये। अगस्त्य को ज्ञात था कि लोककल्याण के लिये शंकर ने क्षीरसागर के मन्थन से उत्पन्न हलाहल विष का पान कर लिया था। उन्होंने सोचा यदि मैं कल्याण के लिये भारत का उत्तरी भाग छोड़कर दक्षिण भाग में रहूँ तो क्या हानि है? भगवान् शंकर की पूजा तो वहाँ भी हो सकती है। महर्षि अगस्त्य लोपामुद्रा के साथ विन्ध्याचल के पास गये। विन्ध्याचल शाप के डर से उनके चरणों में गिर गया और कहा कि मेरे योग्य सेवा बतलाइये। श्री अगस्त्य ने कहा कि जब तक मैं वापस न आऊँ तब तक तुम यों ही पड़े रहना। यह कहकर महर्षि उज्जैन की ओर चले गये। वहीं रहकर शंकर की आराधना करने लगे। तब से अब तक विन्ध्याचल ज्यों का त्यों पड़ा है। अगस्त्य नहीं लौटे।
महर्षि अगस्त्य ने समय-समय पर संसार के लिये बड़े-बड़े कल्याण के कार्य किए हैं। इन्द्र के द्वारा वृत्रासुर के मारे जाने पर बचे हुए दैत्य समुद्र में रहने लगे। रात में निकलकर ऋषियों को खा जाते थे। देवताओं की प्रार्थना पर अगस्त्य समुद्र जल को पी गये। देवों ने दैत्यों का विनाश कर दिया। इल्विल और वातापी नाम के दो बड़े भयंकर राक्षस थे। वे ऋषियों के पेट में घुसकर उन्हें मार डालते थे। महर्षि अगस्त्य ने उन दोनों का विनाश कर दिया।
इल्विल और वातापी को मारने के बाद उन्हें लगा कि हिंसा के कारण उनका तपोबल घट गया है। ऐसा विचार करके वे तप करने के लिये हिमालय पर गये। वहाँ घोर तप प्रारम्भ किया। आकाशवाणी हुई कि इस तप से तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं होगी। तुम दक्षिण देश में महेन्द्र पर्वत पर परशुराम से मिलो। वे ही तुम्हें उपाय बतलायेंगे। परशुराम ने अगस्त्य को जो बतलाया वही भार्गव संहिता या भार्गवतन्त्र के रूप में आपके करकमलों में विद्यमान है।
Details of Book :-
Particulars | Details (Size, Writer, Dialect, Pages) |
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Name of Book: | भार्गवतन्त्रम् | Bhargav Tantram |
Author: | Kapildev Narayan |
Total pages: | 320 |
Language: | हिंदी | Hindi |
Size: | 110 ~ MB |
Download Status: | Available |
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