Bhuta Suddhi Tantram Hindi Book Pdf Download
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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:
अधिकांश विद्वानों के अनुसार विश्व की समस्त भाषाओं में संस्कृत भाषा सबसे प्राचीन भाषा है, इसका विशाल कलेवर है, परन्तु सम्प्रति इसका कलेवर संकुचित हो गया है। इस कारण है कि इसका अधिकांश भाग यवन शासकों की क्रोधाग्नि में सदा के लिए भस्म के रूप में परिवर्तित हो गया। मुस्लिम शासक बिन बख्तियार खिलजी ने 1203 ई. में विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को आग के हवाले कर दिया, जिसकी राख आज भी चीख-चीख कर दुष्ट मुस्लिम शासक को कोसती हुई अपनी विशालता को बता रही है। वे नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय, जिन्होंने समस्त विश्व को अद्वितीय ज्ञान की आभा से प्रकाशित किया। आज खण्डहर के रूप में अपने अतीत की गरिमा को बता रहा है। नालंदा विश्वविद्यालय संस्कृत, पालि और प्राकृत के ग्रन्थों का भण्डार था। विशेष रूप से उसमें संस्कृत साहित्य की निधि सुरक्षित थी। पता नहीं कितना विशाल संस्कृत भाषा का साहित्य उस आग में भस्म हो गया, जो कुछ बचा हुआ है, वह भी कम नहीं है। उस बचे हुए साहित्य को संजो कर रखने में मठों के महन्तों और संग्रहालयों की भूमिका है। भारतीय संस्कृति को मिटाने का जितना सफल प्रयास मुस्लिम शासकों ने किया, उतना अंग्रेजों ने नहीं किया। मुस्लिम शासक सभी लुटेरे मूर्ख और गंवार थे। उन्होंने इस साहित्य के महत्व को नहीं समझा। उन्होंने बंदर की तरह सुन्दर साहित्य रूपी बागीचे को बर्बाद कर दिया तथापि जो भी बचा है, वह कम नहीं है। अब दुःख तो इस बात का है, उस भस्मीभूत साहित्य में कौन-कौन वैज्ञानिक रहस्य थे, जो आज समाजकल्याण के कारण बनते; क्योंकि जो भी अवशिष्ट है, उनमें सम्भवतः प्रत्येक वैज्ञानिक अनुसंधानों की मूल प्रेरणा तो अवश्य है।
खैर, जो भी बचा हुआ है, वह कम नहीं है। कम ही नहीं, अत्यन्त रहस्यपूर्ण है, जिसमें समस्त वैदिक साहित्य, स्मृतियाँ, पुराण और अनेक महाकाव्य, काव्य, नाटक तथा असंख्य तन्त्र ग्रन्थ आते हैं। समस्त संस्कृत वाङ्मय दो भागों में विभक्त है, वे हैं-निगम और आगम। तदनुसार भारतीय संस्कृति निगमागम मूलक है। निगम-आगम क्या है? इस विषय में कुलूकभट्ट का कथन है कि ईश्वर प्रणीत धर्मग्रन्थ दो प्रकार के हैं- वैदिक और तान्त्रिक। "द्विविधा हि ईश्वर प्रणीता मन्त्रग्रन्थाः वैदिकाः तान्त्रिकाश्च।"
देवी भागवत, पुराण में निगम शब्द की व्युत्पत्ति है- "निगम्यते ज्ञायतेऽनेन इति निगमः' अर्थात् जिसके द्वारा किसी भी विषय अथवा तत्त्व को जाना जाता है, उसे निगम कहा जाता है। 'नि' उपसर्ग पूर्वक गम्' धातु में "तत्रभवः" सूत्र से 'अण्' प्रत्यय से निगम शब्द बना है। 'गम्' धातु जाने, पहुँचने तथा ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होती है तथा 'नि' उपसर्ग का अर्थ निश्चित रूप से है, अतः निगम का अर्थ हुआ कि निश्चित रूप से किसी तथ्य, तत्त्व अथवा विषय तक पहुँच सके, उसे जान सके, उसे निगम कहा जायेगा। इस दृष्टि से वैदिक साहित्य ही निगम की संज्ञा का अधिकारी है; क्योंकि वैदिक साहित्य मानव का उचित मार्गदर्शन करता है।
'आ' उपसर्ग पूर्वक 'गम्' धातु में 'अच्' प्रत्यय से आगम शब्द बनता है। आ उपसर्ग आ= समन्तात् के अनुसार समन्त अर्थ में आता है तथा इसका अर्थ विशिष्ट क्रम भी है, समन्त का अर्थ होगा- सम्यक् प्रकार से आदि से अन्त तक, जो पूर्ण की पराकाष्ठा है तथा गम् धातु तो जाने, पहुँचने और जानने के अर्थ वाली है ही, अतः आगम शब्द का अर्थ हुआ, जिसके द्वारा सम्यक् प्रकार से आदि से अन्त तक विशिष्ट क्रम से तत्त्व विषय अथवा तथ्य तक पहुँचा जा सके, उसे आगम कहते हैं। इस व्याख्या के अनुसार आगम-निगम से भी महत्वपूर्ण साहित्य माना जा सकता है। इसलिए जिन धर्मनिष्ठ विद्वानों की तन्त्रमार्ग पर असीम श्रद्धा है, उन्होंने तन्त्र साहित्य को पञ्चम वेद कहा है। बङ्गाल प्रदेश के शाक्त विद्वानों ने तो तन्त्रग्रन्थों को वेदों से भी महत्वपूर्ण माना है।
Details of Book :-
Particulars | Details (Size, Writer, Dialect, Pages) |
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Name of Book: | भूतशुद्धितन्त्रम् | Bhuta Suddhi Tantram |
Author: | Dr. Rupesh Kumar Chauhan |
Total pages: | 84 |
Language: | हिंदी | Hindi |
Size: | 36 ~ MB |
Download Status: | Available |
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