Vaidya Saar Hindi Book Pdf Download
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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:
अनादि काल से संसार-भ्रमण करता हुआ यह जीव महान् पुण्योदय से मनुष्य जन्म प्राप्त करता है। यद्यपि प्रायः सभी मत मतांतरवालों ने इस मनुष्य जन्म को सर्व योनियों में श्रेष्ठ माना है, तथापि जैनवने में तो इसका और भी गौरव बताया गया है। प्राणिमात्र का अंतिम उद्देश्य और सर्वोपरि अनुपम सौख्य-स्थान, मोक्ष की प्राप्ति इसी जन्म से होती है। जीव को देव, तिर्यच, नरक गतियों से मोक्ष नहीं प्राप्त होता। यद्यपि देव-योनि उत्तम और सुख की भूमि है, फिर भी अन्तिम ध्येय, जो कि संयम-प्राप्ति और केवलज्ञानं की अनुपम विभूति प्राप्त होने के बाद प्राप्त होता है, और जहाँ पहुंच जाने के बाद यह जीव अनंतानंत काल तक अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसौख्य अनंतवीर्य इन अनुपमेय लब्धियों का सुख भोगता है, इस मनुष्ययोनि से ही प्राप्त होता है। सारांश, सांसारिक अवस्था में इस जीव की उन्नति के लिए मनुष्य जन्म-प्राप्ति ही उत्तम साधन है। वैद्यक शास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ, सुश्रुतसंहिता, में प्रारंभ के अध्याय में ही लिखा है कि "तत्र पुरुषः प्रधानम्, तस्योपकरणमन्यत्" अर्थात् सांसारिक योनियों में पुरुष प्रधान है, अन्य पदार्थ सब उसकी उन्नति के साधन हैं।
मनुष्य की उन्नति को रोकने के लिए जिस प्रकार जरा, चिंता, जन्म-मरण, निधनता आदि विन्न स्वरूप हैं, उसी प्रकार रोग भी इस जीव का इतना प्रबल शत्रु है कि अनेक प्रकार के उपाय करते हुए भी जब यह अपना अधिकार इस शरीर पर जमा बैठता है, तब मनुष्य के ज्ञान, बुद्धि, बल-वीर्य आदि सभी गुण परास्त हो जाते हैं, और कुछ काल के लिए तो बह किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है। वैद्यक के प्रसिद्ध ग्रन्थों में लिखा है कि-
रोगाः कार्यकराः बलत्क्षयकराः देहस्य दाखर्यापहाः ।
दृष्टा इंद्रियशक्तिसंक्षयकराः सर्वा गपीडाकराः ॥
धर्मार्थाखिलकाममुक्तिषु महाषिनस्वरूपाः बलात् ।
प्राणानाशु हरन्ति सन्ति यदि ते तेमं कुतः प्राणिनाम् ।।
अर्थात् रोग दुर्बल बना देते हैं, बल नष्ट करते हैं. शरीर की हड़ता का अपहरण करते हैं, इन्द्रियों की शक्ति के नाशक हैं और सभी अन्नों में पीड़ा पहुंचाते है। धम, अर्थ, सम्पूर्ण काम और मुक्ति में हठात् महान् विन के रूप में उपस्थित हो जाते और प्राणों का हरण कर लेते हैं। यदि किसी प्रारणी को वे रोग हुए हों, तो उसको कुशल कहाँ।
जैन-शास्त्रों में भी इसके अनेक दृष्टांत मौजूद हैं; जैसे स्वामी समन्तमद्र को भस्मक व्याधि ने कुछ काल के लिये क्रियाहीन कर दिया था। श्री मुनि वादिराज को कुष्ठ रोग के कारण परेशानी उठानी पड़ी थी। रोग प्राणिमात्र का महान् वैरी है और जबतक जीव उसके.....
Details of Book :-
Particulars | Details (Size, Writer, Dialect, Pages) |
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Name of Book: | वैद्य सार | Vaidya Saar |
Author: | Pt. Satyadhar Jain |
Total pages: | 130 |
Language: | हिंदी | Hindi |
Size: | 10 ~ MB |
Download Status: | Available |
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