श्रीत्रिपुरोपनिषद् | SRI TRIPUROPANISHAT HINDI BOOK PDF FREE DOWNLOAD

Sri Tripuropanishat Pdf Download

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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:

भाष्यद्वयी के साथ श्रीत्रिपुरोपनिषत् का सम्पादन करके वेदमीमांसानु- सन्धानकेन्द्र से प्रकाशन पूज्यपाद अहर्निशविद्याव्यासङ्गजाज्वल्यमानविग्रह श्रीगुरुवर्य पं. प्र. पट्टाभिरामशास्त्रिपदप्रवाल ने किया था। प्रातः सात बजे से मेरे पढ़ने का समय था और गुरुजी पढ़ाने के लिए भस्मच्छुरितललाट होकर बैठे रहते थे। अस्सी वर्ष की अवस्था में अध्यापन के साथ-साथ मीमांसानयमञ्जरी ग्रन्थ का लेखन-प्रकाशन तथा मीमांसाकुतूहल, मीमांसा- शास्त्रमाला आदि अनेक ग्रन्थों को सम्पादित करके प्रकाशित कराया था। महापुरुषों के पदचिह्नों पर चलने की प्रेरणा उनके सान्निध्य से ही प्राप्त होती है। भाष्यद्वयसंवलित श्रीत्रिपुरोपनिषत् के प्रति मेरा प्रगाढ़ आकर्षण था, क्योंकि निःश्रेयसोपयोगी और अपार व्युत्पत्ति के आधान की क्षमता दोनों भाष्यों में थी।

इस ग्रन्थ को सर्वदा मैं अपने पास रखता था और यथावसर देखता रहता था। उसी काल में प्रातःस्मरणीयपदपङ्कज पूज्यपाद तन्त्रशास्त्र में नित्य अवगाहन करने वाले श्रीविद्यासाधनापीठ के संस्थापक श्रीसीताराम- कविराजजी का सानिध्य प्राप्त हुआ था। उनके पदकमलों की छाया में रहकर श्रीभुवनेश्वरीमन्त्र का पुरश्चरण मैंने किया था। ग्रहण आदि के अवसरों पर अपने पास बैठाकर वे जप कराते थे। गुरु के धर्म का निर्वाह उन्होंने हमारे प्रति पूर्णतः किया था। नित्यनिरवद्यविद्याव्यासङ्ग के धनी पूज्यपाद श्रीमत्कविराजजी के मध्य तन्त्र के विषयों पर मेरी जिज्ञासा होती थी और वे तत्परतया उसका समाधान करते थे। परदेवता और उनकी उपासना से निःश्रेयस की प्राप्ति में अर्थात् शास्त्रों में उनकी प्रगाढ़ श्रद्धा थी। जप में झपकी आने पर वे चैतन्य कर देते थे। उन्होंने एकान्त में मुझे कहा था कि तुम यहाँ जब भी भोजन करना हमारे साथ करना। विश्वविद्यालय के अनेक आचार्य बाहर भोजन करते थे और मैं गुरुजी के साथ उनके कक्ष में भोजन करता था। इस तरह गुरुजनों के प्रति मेरी श्रद्धा भगवान् जैसी ही बलवती होती गयी। निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए ऐसी श्रद्धा अपेक्षित है। सुना भी गया है-

'यस्य देवे परा भक्ति र्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता अर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।'

श्रीत्रिपुरोपनिषद् के भाष्यकार श्रीरामानन्दतीर्थजी ने गुरु के विषय में हयग्रीव के और महालक्ष्मीतन्त्र के वचनों से कहा है। गुरु प्रसन्न होकर मोक्षलक्ष्मी प्रदान करते हैं। वे दुर्लभ हैं और उनके लिए शरीर, अर्थ और प्राणों को भी समर्पित कर देना चाहिये। गुरु के अधीन ही सारे कार्यों को करना चाहिये। मनुष्य के चर्म में वे साक्षात् शिव हैं-

'मनुष्यचर्मणा बद्धः साक्षात् परशिवः स्वयम् । सच्छिष्यानुग्रहार्थाय गूढं पर्यटति क्षितौ ।।
सद्भक्तरक्षणायैव निराकारोऽपि साकृतिः ।
शिवः कृपानिधिर्लोके संसारीव हि चेष्टते ।।
अत्रिनेत्रः शिवः साक्षादचतुर्बाहुरच्युतः ।
अचतुर्वदनो ब्रह्माश्रीगुरुः परिकीर्तितः ।।
श्रीगुरुं परतत्त्वाख्यं तिष्ठन्तं चक्षुरग्रतः ।
भाग्यहीना न पश्यन्ति सूर्यमन्धा इवोदितम् ।।'

नयनों के सामने विराजमान श्रीगुरु परम तत्त्व हैं जिन्हें भाग्यहीन नर नहीं देखते जैसे अन्धे सूर्य को नहीं देखते। श्रीगुरु के प्रति प्रवर्धमान श्रद्धा ही ब्रह्म में पर्यवसित होकर निःश्रेयस का हेतु होती है, इस तथ्य को समझना चाहिये। भारत के कालिदास, माघ, भारवि, बाणभट्ट आदि जितने भी सिद्ध महाकवि और आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त आदि काव्यतत्त्वज्ञ आचार्य हुए हैं,

Details of Book :-

Particulars

Details (Size, Writer, Dialect, Pages)

Name of Book:श्रीत्रिपुरोपनिषद् | Sri Tripuropanishat
Author:Acharya Shri Kamalakanta Tripathi
Total pages:132
Language: हिंदी | Hindi
Size:104 ~ MB
Download Status:Available


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