सरस्वती तन्त्रम् | SARASWATI TANTRAM PDF FREE DOWNLOAD

Saraswati Tantram Pdf Download

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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:

सरस्वती तन्त्र मूलतः स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है। यह किसी वृहद् तन्त्रग्रन्थ का अंश प्रतीत होता है। इसकी प्रतियाँ एशियाटिक सोसायटी बंगाल में ६००७ तथा ६०६, राजेन्द्र लाल मित्र की संस्कृत पुस्तिका के विवरण संख्या ४४७ तथा २६१ और बड़ौदा पुस्तकालय में क्रमसंख्या २६१ के रूप में उपलब्ध है। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्विद्यालय के ग्रन्थ संख्या २६१३८ के रूप में भी इसका अंकन हैं। मैमन सिंह जिला के पं मथुरानाथ तथा पावना के पं क्षितीशचन्द्र भट्टाचार्य के संग्रह में भी इसकी पाण्डुलिपि रक्षित है।

यह ग्रन्य शिवपार्वती संवादात्मक है। इसमें छःपटल है। जैसा कि इसका नाम है, इसमें सरस्वती उपासना का अलग से कोई भी विवरण नहीं मिलता । इसमें मूलाधार आदि चक्रों में देवड्यान, निर्वाण मुक्ति, कालिका आदि देवियों के मन्त्र, योनिमुद्रा, मन्त्रार्थ, मन्त्रचैतन्य, कुल्लुका, महासेतु, प्राणयोग, शोधन आदि साधक के लिये अत्यन्त हितकारी साधनांग का समावेश है। किसी भी तन्त्र मार्ग सें साधना करने पर उक्त साधनोग का ज्ञान तथा सम्यक् अनुशीलन आवश्यक है। इस प्रकार से यह ग्रन्थ समस्त शाक्ततन्त्रों की साधना के लिये एक दिशानिर्देश का बोधन कराता है। साधनाङ्ग के ज्ञान के अभाव में सरस्वती विद्या कदापि सिद्ध नहीं हो सकती ।

इस ग्रन्थ का नाम सरस्वती तन्त्र रखा गया है। वास्तव में भगवती सरस्वती कुलकुण्डलिनि का उर्ध्वमुखी रूप हैं। महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती रूप से सप्तशती में देवी के जिन रूपत्रय का वर्णन है, वह वास्तव में कुलकुण्डलिनी ही के तीन रूप हैं। नाद-विन्दु तथा कला से साधक सामान्यतः परिचित हैं। कला का पर्यवसान ही महाकालिका हैं। नाद का पर्यवसान ही महासरस्वती का रूप है और विन्दु का परम-चरम में पर्यवसान ही महालक्ष्मी का रूप है। इन्हीं तीनों रूपों का उत्कर्षं ही सप्तशती में वर्णित है। महासरस्वती ही इस स्थूल देह में स्वर-व्यंजन रूपा हो जाती हैं। सूक्ष्मदेह में वही नाद हैं और वह नाद अन्त में प्रणवरूपता को प्राप्त करके महासरस्वती में लीन हो जाता है। यहीं मन्त्र चैतन्य तथा वास्तविक मन्त्रार्थ स्थिति की प्राप्ति है। जहाँ कहीं भी मन्त्रोपासना या जपप्रक्रिया की साधना की जाती है, वहाँ प्रकारान्तर से महासरस्वती की ही साधना होती है, चाहे वहां किसी भी देवता की साधना क्यों नहीं की जाये। नाद का पर्यवसान होने के अनन्तर ही महालक्ष्मी की प्रकृत साधना विन्दुकीनता के रूप में सम्भव है।

काली कलनात्मिका हैं। कलन मन का कृत्य है। मन से ही काल की कलना होती है। मन के विलीन होते ही काल स्तब्ध हो जाता है, खोजने पर भी उसका सन्धान नहीं मिलता। काली की उपासना से मन का यह कलन व्यापार समाप्त हो जाता है और अब भूत-भविष्य-वर्तमान रूप खण्डकाल के विलीन होने पर नित्य वर्तमान रूप अखण्ड काल का साक्षात्कार होने लगता है। इसी स्थिति में यथार्थ प्रकृत नाद का साक्षात्कार होता है। यह प्रकृत नाद श्रुतिगोचर होने वाला योगीगण द्वारा अनुभूत नाद कदापि नहीं है। 

Details of Book :-

Particulars

Details (Size, Writer, Dialect, Pages)

Name of Book:सरस्वती तन्त्रम् | Saraswati Tantram
Author:SN Khandelwal
Total pages:28
Language: हिंदी | Hindi
Size:4.8 ~ MB
Download Status:Available


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