Free Hindi Book Sampurna Chanakya Niti In Pdf Download
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पुस्तक का संक्षिप्त विवरण:
नीति का शाब्दिक अर्थ है- जो आगे ले जाए। इस प्रकार अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जो नियम या सिद्धांत निर्धारित किए जाते हैं, वह भी नीति शब्द में समाहित हैं। 'सुव्यवस्था' भी नीति का अर्थ है। इसके संदर्भ व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनीतिक अलग-अलग या कुल मिलाकर सब एक साथ भी हो सकते हैं। इस तरह 'नीति' का इतिहास यदि देखें, तो इसके अस्तित्व को मानव सभ्यता के विकास के साथ ही स्वीकार करना पड़ेगा। अपने क्षेत्र, अपनी जाति और अपने अस्तित्व को बनाए रखने और विकसित करने के रूप में इसे समूची प्रकृति और इसके सभी प्राणियों में भी देखा जा सकता है।
नीति शास्त्र के आचार्यों की वैसे तो बहुत लंबी परंपरा है लेकिन शुक्राचार्य, आचार्य बृहस्पति, महात्मा विदुर और आचार्य चाणक्य इनमें प्रमुख हैं। आचार्य चाणक्य ने श्लोक और सूत्र दोनों रूपों में नीति शास्त्र का व्याख्यान किया है। अपने ग्रंथों के प्रारंभ में ही वे अपने पूर्ववर्ती आचार्यों को नमन करते हुए स्पष्ट कर देते हैं कि वो कुछ नया नहीं बता रहे हैं, वे उन्हीं सिद्धांतों का प्रतिपादन कर रहे हैं, जिन्हें विरासत में उन्होंने प्राप्त किया है और जो बदलते परिवेश में भी अत्यंत व्यावहारिक हैं। आचार्य क्योंकि राजनीति और अर्थशास्त्र के शिक्षक हैं, इसलिए वे जानते हैं शिक्षा की वास्तविकता को। वो जानते हैं कि पुस्तकों पर अनुभव हावी हुआ करता है, और यह भी कि ग्रंथों का निर्माण अनुभवों का ही संकलन और संग्रह है इसलिए इन रचनाओं के प्रति कर्तापन का अभिमान कैसा !
आचार्य चाणक्य का जीवन पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि सत्य की समझ रखना ही पर्याप्त नहीं है, जरूरी है कि अन्याय के विरुद्ध संघर्ष भी किया जाए। तटस्थ रहना साहसी और पराक्रमी व्यक्ति का स्वभाव नहीं होता। लोगों का मानना है कि सज्जन व्यक्ति का स्वभाव कुटिलता के योग्य नहीं होता। उसके लिए तो कुटिलता का नाटक कर पाना भी संभव नहीं है। लेकिन चाणक्य ने सिद्ध कर दिया कि अपने स्वभाव को बनाए रखते हुए अर्थात् भीतर से सज्जन बने रहते हुए भी दुष्टों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया जा सकता है। श्रीकृष्ण और श्रीराम जैसे महान पुरुष इसका उदाहरण हैं। हां, इसके लिए मन को विशेष प्रकार से प्रशिक्षित करना पड़ता है। श्रीकृष्ण ने धर्म युद्ध में भी 'अधर्म' का प्रयोग किया। धर्मराज युधिष्ठिर को भी झूठ बोलने के लिए बाधित किया। क्यों? इसलिए कि 'शठों से शठता' का व्यवहार करना चाहिए। ऐसा करते समय विचारणीय यह है कि वह व्यवहार या प्रतिक्रिया स्वार्थ के लिए की जा रही है या कि उसमें जनहित की भावना समाहित है। दुष्टों का विनाश होना ही चाहिए, भले ही साधन कोई भी हो। अनासक्त भाव से किया गया कर्म पाप-पुण्य की सीमा से परे होता है-ऐसा दार्शनिक सिद्धांत है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को यही उपदेश दिया है।
उपरोक्त सत्य को समझने के लिए महर्षि विश्वामित्र के वो निर्देश अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, जो उन्होंने सिद्धाश्रम में प्रवेश करने से पहले राम को दिए थे। उन्होंने कहा था, "राम! सावधान हो जाओ। अब घोर जंगल प्रारंभ हो चुका है। यहां सतर्क रहना इसलिए आवश्यक है कि राक्षस किसी भी समय छुपकर घात कर सकते हैं। और इनकी स्वामिनी ताड़का बिना किसी शस्त्र के हमारे मार्ग को रोक कर कभी भी खड़ी हो सकती है। तब तुम बेहिचक उसका संहार कर देना। अनार्यों से युद्ध करते समय आर्य नियमों का पालन करना विपत्ति में डाल सकता है। बुद्धिमान को चाहिए कि विपत्ति को आने ही न दे।" विश्वामित्र की बात सही थी। राक्षसों को धनुष-बाणधारी क्षत्रिय कुमारों के आने का समाचार मिला और उन्होंने अपनी स्वामिनी के साथ मिलकर उन पर आक्रमण कर दिया। श्रीराम ने महर्षि के निर्देशानुसार अपना कार्य किया। उन्होंने ताड़का को देखते ही, बिना यह सोचे कि वह स्त्री है और निहत्थी है, एक ही बाण से ढेर कर दिया।
चाणक्य का कौटिल्य बनना जनहित के लिए था। उनका स्वप्न था अखंड भारत । इसी के लिए उन्होंने शत्रुओं को उन्हीं की चाल से मात दी। आचार्य द्वारा चलाया गया अभियान 'आत्मरक्षा' का एक अंतिम प्रयास था। इससे चूकने का अर्थ था भारत के अस्तित्व को समाप्त कर देना। जरा सोचकर देखो, यदि आचार्य ने तत्कालीन परिस्थितियों का विरोध न किया होता, विकल्प के रूप में चंद्रगुप्त को स्थापित न किया होता, तो आज के भारत का स्वरूप कैसा होता। नंद के प्रधान अमात्य को चंद्रगुप्त के साथ जोड़ना और उसे गरिमामंडित करते हुए प्रधान अमात्य के पद पर प्रतिष्ठित करना आचार्य की अप्रतिम सूझ-बूझ और हृदय की विशालता का ही तो उदाहरण है। गुणी को गुणों का सम्मान करना चाहिए। उसके लिए व्यक्तिगत मतभेद मायने नहीं रखते, महत्वपूर्ण होता है जनहित।
आचार्य द्वारा लिखित नीतिशास्त्र के ग्रंथों को पढ़कर लगता है कि वे बहुआयामी व्यक्तित्व के पक्षधर थे। इसीलिए उन्होंने वर्णाश्रम के कर्तव्यों की चर्चा भी स्थान-स्थान पर की है। 'नीति' में धर्म और अध्यात्म को आचार्य ने पूरा स्थान दिया है। उनकी दृष्टि में राजनीति यदि धर्म से दूर चली जाए, तो उसके भटक जाने की संभावना सौ प्रतिशत हो जाती है। धर्मनीति को सोच की व्यापकता प्रदान करती है।
यहां एक बात स्पष्ट रूप से हमें समझ लेनी चाहिए कि आचार्य के समय की मान्यताएं और सामाजिक व्यवस्था आज से कई मायने में बिलकुल भिन्न है। जाति-वर्ण व्यवस्था अब बहुत कमजोर हो चुकी है। ग्रंथ में लिखे गए कुछ शब्दों और मान्यताओं को लेकर स्वस्थ प्रतिक्रिया करना अच्छी बात है, लेकिन उस संदर्भ में मूलग्रंथ में घटाने-बढ़ाने का दुराग्रह करना हमारी नासमझी को ही प्रदर्शित करता है। इतिहास के कड़वे-मीठे तथ्यों को उधेड़ कर फेंका नहीं जा सकता। बदलाव के लिए समझ और धैर्य की आवश्यकता है।
Details of Book :-
Particulars | Details (Size, Writer, Dialect, Pages) |
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Name of Book: | सम्पूर्ण चाणक्य नीति | Sampurna Chanakya Niti |
Author: | Biswamitra Sharma |
Total pages: | 379 |
Language: | हिंदी | Hindi |
Size: | 4.6 ~ MB |
Download Status: | Available |
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